

करीब दो सौ वर्षों की आर्थिक सोच के बावजूद कोई ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं हुआ जिससे हम बेरोजगारी का समाधान निकाल पाते। यह विश्व स्तर पर राजनीतिक दलों की विफलता या राष्ट्रों के निजी स्वार्थ हैं जहां उपलब्ध मानव संसाधनों के प्रयोग में कोताही बरती जा रही है। यह भी सम्भव है कि जानबूझकर आर्थिक नीति की डोर अर्थशास्त्रियों के हाथों से ले चुनिंदा पूंजीपतियों के हांथो की कठपुतली बना दी गई हो। यूरोपियन व अमेरिकन देशों में भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर यह बात स्पष्ट हो जानी बहुत आवश्यक है कि किसी भी देश की आर्थिक नीति का पहला उद्देश्य रोजगार है। विदेशी धन, विदेशी पूंजी निवेश, आयात व निर्यात, यह सब रोजगार के अवसर व राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पाद को दृष्टिगत रखते हुए तय किये जाने चाहिए। दस व्यक्तियों को “स्मार्ट रोजगार” व सौ को बेकार करने वाला “फैशनेबल” विकास अर्थव्यवस्था को पीछे धकेलेगा। यह बहुत विवादित व बड़ी बहस का विषय है। इस पर अर्थशास्त्रियों को बेबाक टिप्पणियां करनी चाहिए। अर्थशास्त्री राष्ट्र की धरोहर हैं, पूंजीपतियों की मंत्रीपरिषद नहीं ?? इस सूत्र को राजनीतिज्ञ अपना धर्म समझ लें। व्यवसायियों व उद्योगपतियों को परामर्श देने के लिए पृथक से प्रबन्ध विज्ञान के विशेषज्ञ उपलब्ध हैं।
एक बहुत बड़ी गलती हम औसतन गुणांक लेने की कर रहे हैं। यह स्वयं को धोखा देने की बात है। पूंजी के वितरण, उत्पादन उपभोग, आयात, निर्यात व प्रति व्यक्ति आय सभी में औसत का फार्मूला फिट करना बहुत बड़ा अन्याय है। एक व्यक्ति एक लाख रूपया कमाये और सौ बेरोजगार व्यक्ति भूखे रहें, इस पर अर्थशास्त्री से यह कहलवायें कि औसत आमदनी एक हजार रूपये प्रति व्यक्ति है तो क्या हम राजनीतिक तौर पर न्याय कर पायेंगे ? कपड़ा उत्पादन के मामले में बड़ी मिलों की उत्पादन क्षमता और घर में लगी खड्डी को जोड़कर औसत निकालेंगें तो बेरोजगारी दूर करने के आंकड़े गड़बड़ा जायेंगे। इस प्रकार की औसत गणना के प्रतिफल के कारण जब मूल आंकड़े ही गलत होंगे तो उनके आधार पर परिकल्पित की गई नीति की इमारत के नीचे स्वयं वास्तुकार खड़े होने से डरेंगें।

यही कारण है कि वित्त मंत्रालय, नीति आयोग या रिजर्व बैंक नौसिखियों की तरह सड़क पर उबड़-खाबड़ पैबन्द में ही अपनी कुशलता समझ रहा है। उसके सामने स्पष्ट लक्ष्यों की समतल सड़क है ही नहीं। चमकीले पैबन्दों और रेशमी धागे की रफू की राजनीति, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की फूहड़ पोशाक से ध्यान बँटाने या भ्रमित करने में कामयाब नहीं हो सकती। पहले यह तय करें कि औद्योगिक क्रांति शेयर बाजार के सूचकांक से नापी जायेगी या बेरोजगारी के आंकड़ों से निर्धारित होगी। एटम बम और हाइड्रोजन बम के आविष्कार ने अन्तत: मानव जाति को मार देने की युक्ति दी है। एक बार राष्ट्र एटम बम बनाने का निर्णय ले तो शत्रु को हमले की क्या आवश्यकता है ? इसके निर्माण, तैनाती और सुरक्षा की चकल्लसों में वह स्वयं भूल जायेगा कि राष्ट्र में चालीस करोड़ गरीबी रेखा से नीचे के लोग भी हैं।
इसे विकास कहने वाले अपनी सोच का आत्ममंथन करें। घर में बच्चों को दूध नसीब न हो परन्तु दरवाजे पर बन्दूक लटकाना बुद्धिमता नहीं मानी जा सकती। जमाने के हिसाब से चलने का तर्क देने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि इस तरह के चलन की प्रेरणा कौन लोग दे रहे हैं? देश के प्रसिद्ध फैशन डिजायनर सिने जगत या आर्थिक रूप से अति सम्पन्न परिवारों के लिए कपड़े डिजायन करते हैं परन्तु जब यह “फैशन” टेलीविजन या सिनेमा के पर्दे के द्वारा सामान्य परिवारों पर चौंध फेंकता है तो स्पर्धा में उनके पारिवारिक बजट लड़खड़ा जाते हैं, या फिर माँ-बाप द्वारा फैशनेबल कपड़े उपलब्ध न कराये जाने से कुंठित तरुणाई अमीर बाहों की इच्छापूर्ति का शिकार हो जाती हैं। बम बनाने की बहस चलाने वाले लोग जानते हैं कि इससे भावुक मतदाता की भावना भड़केगी। वह भूख को भूलकर दिमाग से नहीं वरन दिल की उत्तेजना से वशीभूत होकर बात करेगा। सभी अर्थशास्त्रियों को ऐसे में चुप रहने के बजाय खुलकर पहल करनी चाहिए।
डायनासोर का शिकार तो किसी ने नहीं किया फिर यह प्राणी पृथ्वी से लुप्त क्यों हुआ? प्राणी विज्ञान शास्त्रियों का कहना है कि डायनासोर का विशालकाय आकार ही उसके विनाश का कारण बना। उसे बहुत लम्बे समय तक अपने शरीर के आकार के अनुसार भोजन व्यवस्था में कठिनाई आने लगी होगी। आबादी के बढ़ते दबाव से वनों के कटने के कारण “लिविंग स्पेस” में कमी आई होगी। जंगल छोटे हुए होंगे तो उसके भोज्य जीवों की संख्या भी कम हुई होगी। शनै: शनै: वह अपने ही वजन से लुप्त हो जाने वाला प्राणी बन गया। कार उद्योग का उदाहरण सामने है जो अपने वजन से दमघोंटू स्थिति में जा रही हैं। क्या भारतीय अर्थव्यवस्था वर्तमान में उत्पादित हो रही कारों की संख्या के समानुपाती वास्तविक खरीद का बाजार रखती है? अब कारें लोगों की मांग पर नहीं, इच्छा जागृत कर बेची जा रही हैं। जेब में कार खरीदने लायक धन न होने के बावजूद कार रखने की इच्छा “लालसा” मात्र है। उठान में मन्दी के कारण कार बनाने व बेचने वाली कम्पनियों ने कार रखने की लालसा वाले वर्ग को ही अपना प्रस्तावित ग्राहक बनने का लक्ष्य रखा और इच्छुक खरीददार को कार मूल्य के लिए ऋण भी अपनी तरफ से उपलब्ध कराये। इससे मध्यम व वेतनभोगी वर्ग की बचत की राशि बैंकों को किश्त के रूप में जाने लगी। प्रसिद्ध आटोमोबाईल घरानों से जुड़ी हुई फाइनेंस कम्पनियों ने इस प्रयोजन के लिए आसानी से धन जुटा लिया। इससे दोहरी हानि हुई। बचत का जो धन राष्ट्रीय योजनाओं के अनुरूप विकास कार्यों के लिए मिलना चाहिए था वह गैर विकासीय व्यापारी मुनाफे में लग गया, दूसरी ओर समाज में मात्र प्रतिष्ठा के लिए कार रखने की होड़ से ऐसे व्यक्ति की बजट क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ा और आय का एक बड़ा भाग जो पहले बचत में जाता था, अब ब्याज में जाने लगा। यह दशा भी बहुत समय तक चलने वाली नहीं है। अन्तत: भारी मात्रा में निरन्तर चलती उत्पादन क्षमता के कारण पहले तो कार कम्पनियां मूल्यों में रियायत की घोषणा करेंगी फिर अपने वजन से यह उद्योग स्वयं ही चौपट हो जायेगा।
देश में कार से अधिक आवश्यकता कृषि यन्त्रों की है। सार्वजनिक यातायात के साधन परिपूर्ण नहीं हैं। ऐसे में व्यक्तिगत यातायात के साधनों के बजाय सार्वजनिक या आम आदमी को यातायात के साधनों की सुलभता में मध्यमवर्गीय बचत का धन लगता तो अधिक उपयोगी सिद्ध होता। बस व रेल की सवारी की विश्वसनीयता, सेवा सुधार व विस्तार इस समस्या के निदान का एकमात्र तरीका है।
आर्थिक सुधार को आधुनिक व प्रतिष्ठित शब्दावली बनाने के लिए राजनीतिक दल भाषणों के घोड़े दौड़ा रहे हैं किन्तु बृहद रूप से प्रयोग किया गया अपरिभाषित आर्थिक मोर्चे पर वैश्वीकरण का नारा देशवासियों विशेषकर नौजवानों को क्या तृप्त कर सकेगा? बढ़ते औद्योगीकरण विदेशी निवेश और हथियारों की दौड़ में कोई भी राजनीतिक दल सम्पूर्ण देश या सभी नागरिकों के कल्याण के लिए कुछ कर पायेंगे, इसमें सन्देह है। औद्योगीकरण व विदेशी निवेश बड़ी मछली की तरह कुटीर और छोटे उद्योगों का सफाया कर देंगे। नये हथियारों की खरीद और रखरखाव के लिए संसाधन जुटाने पर बढ़ते ब्याज के बोझ से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पहले ही कमर तक झुक गई है।
देश के चालीस करोड़ भूखे और खुले आकाश के नीचे सोने वाले नागरिकों के विकास को अछूता रखने वाली अर्थव्यवस्था को व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। राजनीति में धन और बाहुबल की बढ़त के कारण गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे लोगों की अहमियत दिनों-दिन कम होती जा रही है। जब आम मतदाता की उपेक्षा कर चुनाव में विजयश्री प्राप्त की जा सकती है तो लक्ष्य भी आम मतदाता से हटकर चुनाव के सहयोग करने वालों तक सीमित रह जाता है। यहीं से फिर कोटा परमिट का दूसरा चक्र आरम्भ होता है। गठबन्धन सरकारों की बाध्यता बड़े घोटालों को धृतराष्ट्र की तरह देखती है। परिणामस्वरूप उपेक्षित वर्ग पुन: उपेक्षित रह जाता है। रोजगार घटाकर उत्पादन बढ़ाने के लिए अभी देश तैयार नहीं है।
पूंजी बाजार की मजबूती से मिलों की चिमनियों के धुएं की गति बढ़े तो ठीक है अन्यथा शेयर बाजार को गर्म कर पूंजी प्राप्ति के बावजूद कारखानों की भट्टियां ठंडी हों और तालाबन्दी हो तो उससे क्या लाभ? व्यवस्था वही है जो कुछ खास व्यक्तियों या वर्ग के पोषण तक सीमित न रहे। इसके लिए राजनीतिक दलों व अर्थशास्त्रियों को लीक से हटकर नये सिरे से सोचना होगा।
