
पढ़ाई की उम्र में नैनिहाल बिन रहे कबाड़ ( अनिल दुबे की रिपोर्ट )

तहसील मुख्यालय क्षेत्र में सर्व शिक्षा अभियान की हकीकत से कोसों दूर आदिवासी अंचल के बच्चे खुलेआम कबाड़ बिनते आसानी से देखे जा रहे हैं। पढ़ाई की उम्र में गरीबी के चलते कूड़े के ढेरों से कबाड़ एकत्रित करना, शराब के ठीहों के आस पास खाली पड़ी शराब की बोतलें आदि एकत्रित कर कबाड़ी के पास बेच अपने परिवारों की रोजी रोटी चलाने में मदद करने को मजबूर है। पढ़ने लिखने की छोटी उम्र में ये गरीब बच्चे हांथों मे खाली बोरी लेकर सुबह से ही कूड़े लगे ढेरो में पहुंच जाते हैं और कबाड़ का सामान बीनना शुरू कर देते हैं हर जगह लगे कूड़े के ढेरों से जब कबाड़ एकत्र कर लेते हैं तब कबाड़ी के यहां पहुंच उसको बेंचते है और तब कही घर के लिए खाने पीने की आवश्यक सामग्री खरीद पाते है और इन गरीब परिवार के घरों में चूल्हा जल पाता है। यह कार्य इन गरीब बच्चों की दिनचर्या में शामिल है।
नही देखा स्कूल का मुंह
गरीबी के चलते ये नैनिहाल बच्चे स्कूलों का मुंह तक नही देखे है और न ही इन बच्चों को अक्षर ज्ञान है इनकी तो रोजमर्रा की जिंदगी सुबह से कूड़े के ढेरों में गंदगी से भरी रहती है पर गरीबी की वजह से गंदगी भरी जिंदगी की परवाह न करते हुये कूड़े के ढेरों में कबाड़ ढूंढते रहते हैं जबकि सरकार द्वारा इन नैनीहालों की शिक्षा के लिए जगह-जगह प्राथमिक विद्यालय की स्थापना की गई है। साथ ही जहां पर विद्यालय नहीं है वहां पर विद्यालय की स्थापना की जा रही है। पर गरीबी से मजबूर ये बच्चे आज भी स्कूलो से कोसो दूर है कहा जा सकता है कि तमाम सरकारी योजनाये यहां दम तोड़ रही है।

नशे के आदि हो रहे नैनिहाल
एक ओर जहां शासन नशा मुक्ति के लिए योजनायें चलाकर नशे से मुक्ति की बात कर रहा है वहीं गरीबी से पनपी संकुचित मानसिक्ता के शिकार भारत का भविष्य कहे जाने वाले ये बच्चे सनह सनह नशे के आदि होते जा रहे है देखा गया है कि ये कबाड़ एकत्रित करने वाले बच्चे बोनफिक्श, शराब, गांजा, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाखू जैसे नशे का सेवन भी कर रहे है। परिवारजनों ने कभी कभार स्कूल जा रहे बच्चों के विषय मे बताया कि घरों से बच्चे स्कूल के नाम से तो निकल जाते है पर स्कूल तक नही पंहुचते कारण बोनफिक्स जैसे सस्ते और गंदे नशे की सामग्री खरीद कर सेवन करते है जिससे जहां एक ओर इन बच्चों के स्वास्थ पर बुरा असर पड़ रहा है वहीं सरकार के तमाम दावे हकीकत की धरातल पर बिखरे हुये दिखाई देते है।
स्कूल चले हम अभियान बेअसर
हर बच्चा स्कूल पहुंचे इसके लिए शासन प्रशासन की ओर से भले ही स्कूल चले हम अभियान चलाया जा रहा हो अभियान के तहत एड़ी चोटी का जोर लगाने पर भी इन बच्चों को स्कूल तक नही ले जाया जा सका जबकि कागजी कोरम पूरा करती यह योजना करोड़ों रुपये खर्च कर चुकी है फिर भी नतीजा इन बच्चों को देखकर सिफर ही नजर आता है। एक अनुमान के मुताबिक आज भी गरीबी के कारण बच्चे स्कूल जाना छोंड़ देते है। शासकीय स्कूलों में उपस्थित छात्र संख्या कुछ ऐसा ही बयां करती है स्कूलो मे प्रवेश के समय जो छात्र संख्या रहती है वह सिर्फ उपस्थित पंजी तक ही सीमित रहती है हकीकत मे उतने बच्चे कभी स्कूल आते ही नही ज्यादातर स्कूलों में छात्रों की संख्या एक तिहाई से भी कम है यह स्थिति शहर के सरकारी स्कूलों की है ग्रामीण अंचल के सरकारी स्कूलों में स्थिती और भी भयावह है।
अभियान में खाना पूर्ति बनी वजह
छात्रों की कम उपस्थिति को लेकर वैसे तो स्कूल के प्राचार्य व शिक्षा अधिकारी तेज शुरुआत का हवाला देते नही थकते लेकिन वर्तमान मे स्कूल चले हम अभियान पर की गई खानापूर्ति का नतीजा ही कहे कि आज भी नैनिहाल कबाड़ बीन रहे है। विभाग के कुछ अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर स्वीकार कर रहे हैं कि जब अभियान केवल कागज तक सीमित है तो परिणाम कैसे बेहतर होगा हाल में ही ग्रामीण अंचलों में शिक्षक नाम मात्र के लिए विद्यालय जाते हैं स्कूल विद्यालयीन समय पर खुलने व बंद होने की जगह बसों के आने जाने के समय पर खुलता और बंद होता है ऐसे मे इसे अभियान की खाना पूर्ति नही तो और क्या कहेगे।
