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दबंग बहू-बेटियों को उठा ले जाते थे:खौफ ऐसा कि कुल्हाड़ी लेकर चलती, अब 800 दलित बच्चों को एजुकेशन से जोड़ चुकी हूं

गांव में सवर्णों का दबदबा था। शाम ढलने के बाद वे किसी दलित को घर से बाहर नहीं निकलने देते। दलितों के घर की बहू-बेटियों को उठा ले जाते। पापा पुलिस में थे, एक दिन उनकी कहासुनी हुई और गुस्से में एक सवर्ण को गोली मार दी। उन्हें जेल भेज दिया गया। इसके बाद दबंग हमें और ज्यादा परेशान करने लगे।

मैं घर से बाहर निकलती, तो एक हाथ में कुल्हाड़ी और दूसरे में हंसुआ लेकर चलती, ताकि कोई हमला नहीं करे। पढ़ना चाहती थी, लेकिन 8वीं बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। जेल से आने के बाद पापा ने जल्दी शादी कर दी ताकि ससुराल में ठीक से रहूं, लेकिन वहां के हालात इससे भी खराब थे। इसके बाद मैंने तय किया कि अब इनकी दबंगई के खिलाफ मुहिम चलानी होगी।

मैंने दलितों को जागरूक करना शुरू किया। घर-घर जाकर उन्हें कानून और उनके अधिकारों के बारे में बताया। जिन स्कूलों में दलितों को पढ़ने नहीं दिया जाता, वहां उनका एडमिशन कराया। गांवों में लाइब्रेरी खोली। आज मैं 15 गांवों में 800 से ज्यादा दलित बच्चों को एजुकेशन से जोड़ चुकी हूं। अनगिनत दलित परिवारों को न्याय दिला चुकी हूं। जिनकी जमीनों पर दबंगों का कब्जा था, उसे छुड़वा चुकी हूं।

तस्वीर में रीता देवी अपनी टीम के साथ हैं।

ये कहानी है उत्तर प्रदेश के जालौन के नरहान गांव की रहने वाली रीता देवी की। यह गांव डाकू से नेता बनी फूलन देवी के गांव के ठीक बगल में है।

रीता दलित समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। इनके घर के चारों तरफ सवर्ण जाति के लोगों का घर है। वो कहती हैं, ‘नई-नई आई थी, तो गांव में सवर्णों का इतना दबदबा था कि घर के नाले का पानी भी बाहर नहीं निकलने देते थे। इनके दरवाजे के सामने से हम गुजर नहीं सकते थे।

अपने घरों के बाहर सवर्ण लोग खाट बिछाकर सोते थे। सुबह 4 बजे हम शौच के लिए जाते, तो रास्ते में अगर हमारी साड़ी भी इनकी खाट से छू जाती, तो हमें प्रताड़ित किया जाता, पंचायत बुलाकर दंड दिया जाता।’

इस गांव में कितने परिवार हैं?

पूछने पर रीता मुझे अपने छत पर ले जाती हैं। वो गांव को दिखाते हुए कहती हैं, ‘गांव के ज्यादातर लोगों ने गरीबी की वजह से पलायन कर लिया। सिर्फ 35-40 परिवार ही बचे हैं इस गांव में। इस गांव में हम एकमात्र दलित परिवार हैं। बाकी ठाकुर और ब्राह्मण हैं।’

पहले 5-6 दलित परिवार थे, लेकिन दबंगों के शोषण और गरीबी की वजह से सभी पलायन करके उत्तर प्रदेश के उरई, कालपी, कानपुर और गुजरात, मुंबई, दिल्ली जैसे शहरों में चले गए। दरअसल, सवर्ण जाति के लोगों से ये लोग कर्ज लेते थे, जिसके बाद इन लोगों ने दलितों के घर-वार सब लिखवा लिया।’

रीता बताती हैं, ‘ससुराल आए हुए दो-तीन साल ही हुए थे। एक दलित परिवार की बेटी को सवर्ण जाति का लड़का उठा ले गया था। अगले दिन पंचायत हुई, लेकिन सजा उस लड़के को नहीं मिली। पीड़ित परिवार को गांव छोड़ना पड़ा।

इसी तरह एक बार ठाकुर जाति के लोगों ने मेरे ऊपर चोरी का इल्जाम लगा दिया। जब मैंने चोरी की बात से इनकार किया, तो वे लोग लाठी डंडे लेकर मुझे मारने के लिए आ गए। मैंने भी उन पर हमला किया।

बस उसी दिन मैंने तय कर लिया कि अब इनके जुल्म के खिलाफ लड़ना होगा। मैंने घर से बाहर निकलना शुरू कर दिया। गांव से 35 किलोमीटर दूर पैदल बाजार जाती, 6 महीने का राशन लेकर लौटती। इससे दूसरी महिलाओं को भी हिम्मत मिली और वे भी बाहर निकलने लगीं।’

आप अकेले 35 किलोमीटर दूर पैदल चलकर बाजार जाती थीं, घर में कोई दूसरा नहीं था?

रीता बताती हैं, ‘पति जब 3 साल के थे, तभी उनके माता-पिता की मौत हो गई थी। जिसके बाद उन्होंने अनाथ की जिंदगी जी। ऊंची जाति का वर्चस्व इतना था कि मजदूरी करवाकर भी पैसा नहीं देते थे। कई बार तो मजदूरी मांगने पर दबंग नाक तक काट देते थे। इसलिए वो शहर जाकर काम करते थे।

मेरी सारी जमीनों पर दबंगों ने कब्जा कर लिया। जब पंचायत हुई तो हमें एक साल की मोहलत मिली। इसके बाद मैंने खुद कमाना शुरू किया। खेतों में जाकर काम करने लगी, मवेशी पालने लगी। इसके बाद 26 हजार रुपए जमाकर मैंने अपना पूरा खेत दबंगों से छुड़ाया।’

आज रीता की बड़ी बेटी मायके आने वाली है, इसलिए उन्होंने पूरे घर की रंगाई-पुताई कर रखी है। हालांकि वो अपनी छोटी बेटी को याद कर भावुक हो जाती हैं। इसमें रीता की बेबसी झलकती है।

वो कहती हैं, ‘मैं पेट से थी। इलाज के लिए 35 किलोमीटर पैदल चल कर जाती थी। एक दिन में घर भी वापस नहीं लौट पाती थी। रास्ते में एक नदी पड़ती है, जिसे पार करने के लिए उस वक्त बिजली के खंभे रखे होते थे। मैं नदी पार कर रही थी कि अचानक पैर फिसल गया और मैं नदी में गिर गई। कुछ लोग नदी में थे, जिन्होंने मुझे बचा लिया।’

आगे रीता कहती हैं, ‘जब बेटी पैदा हुई, तो वो काफी बीमार रहने लगी। एक बार उसकी तबीयत ज्यादा खराब थी। सामान्य दिनों में जब इस गांव में कोई एम्बुलेंस नहीं आती है, तो फिर बाढ़ के दिनों में कहां से आए। मैं गर्दनभर पानी में अपनी बेटी को सिर पर रखकर इलाज करवाने के लिए ले जाती थी।

जब वो 18 साल की हुई, तो उसके हार्ट के दोनों वॉल्व खराब हो गए। गरीबी की वजह से सही इलाज नहीं करवा पाई। 18 साल की उम्र वो हमें छोड़कर चली गई।’

रीता ने उसके बाद गांव-गांव जाकर वंचित लोगों की आवाज को सिस्टम तक पहुंचाने की मुहिम छेड़ी। 2015 में वे ‘बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच’ के साथ जुड़ गईं।

वो बताती हैं, ‘दलित बच्चों को स्कूल में भेदभाव का सामना करना पड़ता था। दर्जनों बच्चों ने इसी वजह से स्कूल जाना छोड़ दिया था। कई मामले ऐसे मिले, जिसमें इन बच्चों को सबसे पीछे बिठाया जाता था। मिड-डे मील के वक्त अलग थाली दी जाती थी।

हमने इन बच्चों की काउंसिलिंग की। प्रिंसिपल और ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर से बात की और उन्हें वापस स्कूल से जोड़ा। इसके साथ ही मैंने गांवों में लाइब्रेरी की शुरुआत की। अब तक हमारी टीम चार-चार भीम पुस्तकालय की शुरुआत कर चुकी है। यहां हमारे वॉलंटियर्स 200 से ज्यादा बच्चों को पढ़ाते हैं।’

रीत बताती हैं, ‘गांव में सवर्णों को सरकारी सुविधाएं मिलती हैं, लेकिन दलितों को अधिकारी भी नजरअंदाज करते हैं। करीब 400 लोगों को हमने मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत घर, वृद्धा पेंशन, शौचालय दिलवाए हैं।

जिन लोगों के साथ सवर्ण जाति के लोग अत्याचार करते हैं, उन्हें कानूनी लड़ाई लड़ने के बारे में बताते हैं। हमारी टीम में एडवोकेट भी हैं, जो FIR रजिस्टर करने से लेकर कोर्ट तक की बातों को बताते हैं।’

रीता गांव की पीड़ा को शब्दों में समेटते हुए कहती हैं, ‘नरहान गांव के लोगों के लिए आज भी विकास सिर्फ सपना है। हमारे पास खेत तो हैं, लेकिन इसमें फसल नहीं होती। जमीन बंजर है। मिट्टी के पहाड़ यानी बीहड़ के जंगल वाली जमीनें हैं।

आज भी गांव से 35 किलोमीटर दूर शहर जाने की कोई व्यवस्था नहीं है। लोगों को ट्रैक्टर या अपने वाहन से जाना पड़ता है। यही वजह है कि पूरा गांव तकरीबन खाली हो चुका है, लेकिन मैंने संकल्प लिया है कि मेरी अर्थी उठेगी तो इसी गांव से। मैं जीते जी इस गांव को छोड़कर नहीं जाऊंगी। दबंगों ने भी कई बार गांव छोड़ देने की धमकी दी, लेकिन मैं अपने मकसद पर अड़ी रही।

#danikbhaskar

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